यादों के पिटारे से
निकला आज,
नानी के घर का
सिलबट्टा पुराना,
अनायास ही याद
आ गया हो जैसे,
वह बचपन का
गुज़रा ज़माना।
नानी के घर
जब भी जाना होता,
चटपटे स्वादों से
मेल रोज़ाना होता,
सिलबट्टे पर
धनिये की बनती चटनी,
सामने भजिये पकौड़ों का
खजाना होता।
अब गाँव की कैरी का
स्वाद चखे ज़माना हुआ,
वह आम का पेड़,
सरसों का खेत भी,
हमसे बेगाना हुआ।
दिल जैसे वहीं छूट गया,
गाँव की गलियाँ,
वह पनघट अन्जाना हुआ।
अब तो ज़िंदगी ही
सिलबट्टे पर पिसती है,
अपनेपन और नेह के
अभाव में रिसती है,
कुछ दर्द पिस गए
कुछ पीसे जाने हैं,
सिलबट्टा है ज़िंदगी,
दर्द जैसे सरसों के दाने हैं।
स्वरचित एवं मौलिक:- सुनीता मिश्रा
©Pinky CK