ना कोई हमें चिंता थी, ना थी कोई फरियादें
नाना के कांधे पे घूम जाते थे पूरा गांव
और बारिश के पानी में चलाते थे कागज की नाव
अब कहां वैसी खुशी , जिसका कोई कारण नहीं था
आज मुझको लगता है, वो बचपन का दिन ही सही था
मेरी वो बचपन की मुस्कुराहट क्यों नहीं लौट आती है
आजकल तो बिना मुस्कुराए ही सुबह से शाम निकल जाती है
वो बचपन की गलती, जब पापा डांटते थे
और हमारी आंखों से ,मगरमच्छ के आंसू आते थे
वो बूढ़े दादा और दादी जो बीच में आते थे
और मेरी तरकीब को देख पापा मुस्कुराते थे
वह पापा की डांट अब मिलती नहीं है,
मुझे देख , वह बचपन की मुस्कुराहट माँ पे खिलती नहीं है
वह बचपन की फुलवारी से अब रिश्ता कहां है,
अब तो सयानों के लिए भविष्य बनाना ही जहां है
न जाने क्यों कुछ लोग बचपनाहट पसंद नहीं कर पाते हैं,
अरे ! यह बचपन के दिन हैं हमेशा थोड़ी ना आते हैं
कुछ दिन सहलो इन्हें, फिर उनके यह लम्हे भी उड़ जाएंगे,
जिंदगी के दाब से वह बच्चे भी एकदिन सिकुड़ जाएंगे
©Thakur Pranjal Singh