मंज़िल क्या दीख ली हमने
चलना ही भूल गये हैं जैसे
आता तो नही था ऊडना पर
पंख फडफडाने लग गये जैसे
दीखा आसमान, छुलु उसे पलभरमे
एक जुनून था, बिना जंजीर का
बस थोडी सी दूरी थी कम करने की
लेके एक आश आसमान में चलनेकी
डर था धरती से बिछड़ने का
गम है हवामे लटकने रहने का
एक सपना जैसे हवामे ऊड ही गया
अपना बनकर जमीन पर गीर ही गया
अब सफर हुआ पूरा , पर मंजिल बदलती रही
अब फिरसे दोहराना है, जहासे हुआ था शुरू।
©Hathaliya Mayuri
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