वक्त के सफ़र में आदमी कहाँ से कहाँ आ गया
जिस गर्त से उभरा था आज उसी में समा गया
किसी की खुशी देखकर परेशाँ रहता है मगर
देखकर दर्द दूसरों का कहता है मजा आ गया
जिसको भी मौका मिला उसने छोड़ा ही कहाँ
यहाँ हर मजबूरी का कोई फायदा उठा गया
नफ़रतों की बहने लगी हैं हर तरफ़ नदियाँ यहाँ
मज़हब के नाम पर जाने कौन ज़हर फैला गया
अब तो मुर्दों का भी सौदा करने लगा है आदमी
इस कदर भूखा है आदमीयत को ही खा गया ।
©Amit kothari
बदलता वक्त बदलता दौर बदलता आदमी।
सुना है इन्सान भी कभी जानवर था और फिर समय के साथ आये बदलाव से इन्सान बना मगर आज इन्सान इतना गिर चुका है कि जानवर कहने योग्य भी नहीं बचा है।
दिन प्रतिदिन मानव स्वार्थ की आग में जल कर संवेदनहीन होते जा रहा है और अन्याय की सीमाएं लाँघता जा रहा है।
आज समाज में चारों तरफ हो रहे कुकृत्यों तथा कुरीतियों को देखकर लगता है कि क्या यही है हमारा शिक्षित समाज जिसके लिये ना जाने कितने महापुरुषों ने स्वयं को न्योछावर कर दिया था।
धर्म मज़हब के नाम पर हो रही राजनीति से ना जाने कितने मासूम निर्दोष लोगों की जान प्रतिदिन ली जाती है।
मानव आज मानवता खो चुका है नकारात्मक भावनाओं ने आज इन्सान को शैतान बना दिया है