स्त्री ओ स्त्री आखिर क्या हो तुम दो हात, दो पैर

"स्त्री ओ स्त्री आखिर क्या हो तुम दो हात, दो पैर एक चेहरा, दो आँखे एक ओठ, दो कान सबकूछ तो पुरुष जैसा फिर भी बोलो ना क्यो ज्यादा संघर्ष करती हो तुम परछाई बनकर माँ कि ससुराल में हो आती हररोज काम वही करती फिर भी कभी नही,थकती तुम सबका ध्यान रखते रखते ताने हो सुनती तुम बाहर जाती, नौकरी करती फिर भी 'तेरी कमाई से सबको ख़ुशी क्यू नही होती? नजरे गन्दी, ताकती जब तुमको बेफाक होकार, उसके मुहपर जवाब क्यों नही देती तुम, आखिर क्यों इतनी सहनशील हो तुम, बताओ ओ स्त्री आखिर क्या हो तुम ( डॉ. अमिता क्षत्रिय - अनकाडे )"

 स्त्री 
ओ स्त्री आखिर क्या हो तुम 
दो हात, दो पैर 
एक चेहरा,  दो आँखे 
एक ओठ, दो कान 
सबकूछ तो पुरुष जैसा 
फिर भी बोलो ना क्यो 
ज्यादा संघर्ष करती हो तुम 
परछाई बनकर माँ कि 
ससुराल में हो आती 
हररोज काम वही करती 
फिर भी कभी नही,थकती तुम 
सबका ध्यान रखते रखते 
ताने हो सुनती तुम
बाहर जाती, नौकरी करती 
 फिर भी 'तेरी कमाई से 
सबको ख़ुशी क्यू नही होती? 
नजरे गन्दी, ताकती जब तुमको 
बेफाक होकार, उसके मुहपर जवाब
 क्यों नही देती तुम, 
आखिर क्यों इतनी 
सहनशील हो तुम, बताओ 
ओ स्त्री आखिर  क्या हो तुम

( डॉ. अमिता क्षत्रिय - अनकाडे )

स्त्री ओ स्त्री आखिर क्या हो तुम दो हात, दो पैर एक चेहरा, दो आँखे एक ओठ, दो कान सबकूछ तो पुरुष जैसा फिर भी बोलो ना क्यो ज्यादा संघर्ष करती हो तुम परछाई बनकर माँ कि ससुराल में हो आती हररोज काम वही करती फिर भी कभी नही,थकती तुम सबका ध्यान रखते रखते ताने हो सुनती तुम बाहर जाती, नौकरी करती फिर भी 'तेरी कमाई से सबको ख़ुशी क्यू नही होती? नजरे गन्दी, ताकती जब तुमको बेफाक होकार, उसके मुहपर जवाब क्यों नही देती तुम, आखिर क्यों इतनी सहनशील हो तुम, बताओ ओ स्त्री आखिर क्या हो तुम ( डॉ. अमिता क्षत्रिय - अनकाडे )

#feelings.. stri....

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