हरेक घर के हरेक कोने में घुली होती हैं कुछ कहानियां
अक्सर जिसे बड़ी बेरहमी से दबा देते हैं,
हम और हमारे जैसे सैकड़ों लोग हर रोज़।
हर घर अलग है, अलग लोग हैं,
सोच अलग है पर एक-सी है कोनों की कहानियां।
वो कोना साफ़ है, सजा है रंगोली से
पड़ेगी दृष्टि आगंतुक के, बैठक जो है।
वहीं एक कमरे में पड़ा है करकट-कूड़ा कुछ बचकर
कुछ नहीं व्यक्तिगत है ये जो।
कुछ कोने घर के लगे हैं तश्विरों से
बने हैं विचित्र आकृति के आलेखन,
तश्वीरों के सामने रखे हैं फूल, पत्ती, दूब कुछेक
और धुआं उड़ा रही हैं अगरबत्तियां।
एक कोना वो सीढ़ियों के नीचे
हां हां वही सबसे उपेक्षित और अंधेरे वाला,
वहां तो होते हैं कुछ लोहे-लक्कड़,
कुछ वो जो उपयोग में नहीं अब।
वो कोना चौके का बेचारा
घिरा होता है बर्तनों से हर वक्त,
हैं कुछ और भी सामान रखे हुए
जैसे तेल, मसाले, और चूल्हा भी।
वह कोना जरूर भरा होगा तेज़ाब और कूंचे से
सिलियां पैखाने की साफ़ करने को,
और एक कोने में रखा होगा बर्तन टूटा हुआ अवस्यमेव।
स्नानघर के कोने गीले हैं जल से
कभी नहाने से, कभी बस हाथ धोने से,
और उसी के आस-पास कहीं होगा साबुन झाग में सना।
और छत के कोने बहुत अलग होते हैं
कहानियां वहां खुले आसमान में तोड़ती हैं दम अपना,
कुछ कवक, कुछ शैवाल लग जाते हैं
और गंदा कर देते हैं उस भोले-भाले कोने को,
तभी तो बचे-खुचे सामान भी पड़े होते हैं उसी कोने में
वे भी जिनका काम है और वे भी जिनका बिलकुल नहीं।
हर कोने की कहानी कोना सुनाता है ख़ुद हीं,
रोता है ख़ुद हीं, हंसता है ख़ुद हीं,
और गाता-गुनगुनाता भी है चहक-चहककर,
दुर्भाग्य है, कोई सुनता नहीं, समझता नहीं!
उसके आवाज़ को, उसकी भाषा को।
©Deep Kushin
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