सुन लो जरा करता हूं मैं गुफ्तगू ए जज्बात।
कैसे मांगू मैं तुमसे ही तेरा हाथ।
कह दूं या नहीं, तुमसे लगता है बहुत डर।
मैं चाहता हूं तुमसे रौशन हो मेरा घर।
तुमसे मैं कह सकूं ये, नहीं होती है हिम्मत।
करता रहूंगा तेरी मैं उम्र भर खिदमत।
तू है अगर राजी तो इशारा दे दे।
इस डूबती कश्ती को किनारा दे दे।
मैं करूं अपने वालीदैन से मुहरदैन की बात।
फिर छेड़ सकें वो भी अपने सुख चैन की बात।
जिन्दगी भर रहे खुशबू ऐसा इतर मिले।
उनको मिले बहू और मुझे हमसफर मिले।
ऐ काश की कह पाता तुमसे मैं ये कभी।
तेरे सिवा ये बात जानते हैं लगभग सभी।
क्या ख्वाब ही रह जायेगी ख्वाहिश मेरी?
ये तो तुम पर ही है की क्या है मर्जी तेरी।
~रिजवान अहमद फैजी
©Silent Shayar
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