#WorldTheatreDay पाठ तो दुनिया पढ़ाती थी, में तो किताबों में ढूंढ रहा था
बूंदे जमीं पे गिर रही थी, में था कि आसमाँ में ढूंढ रहा था
खोई हुई थी मंजिल मिरी, तो राहें उसकी गुमनाम सी थी
रास्तें मेरे पैरों के नीचे ही थे, और में यहाँ वहाँ ढूंढ रहा था
गरीब भूखे लोगों को, वो रोज मुफ्त में खाना खिलाती थी
भगवान यहाँ थे, फिर क्यों में मंदिरों में उसको ढूंढ रहा था
रहमत, दुआ, फिक्र सब मेरे लिये, मेरी माँ ही कर रही थी
न जाने क्यूं में किसी लड़की में, उस फिक्र को ढूंढ रहा था
बरसों से कैद एक लोहे के पिंजरे में, दो परिंदों का जोड़ा।
आसमाँ में खुला आज़ाद उड़ने के लिये, जगह ढूंढ रहा था
किसी रोज मेले में, अपनी माँ से बिछड़ा हुआ कोई बच्चा
दर -ब- दर ठोकरें खाता हुआ, अपनी माँ को ढूंढ रहा था।।
जहां नजर ताको वहाँ सब, ऐसो की जिंदगी चाह रहे थे।
एक मैं था जो जिंदगी जीने का, कोई नया मार्ग ढूंढ रहा था
कट रही जिंदगी सुगम,लेकिन अपनी गलती को मिटाना है
अब तक जो हुआ सो हुआ,आगे नया कुछ कर दिखाना है।।
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