White मैं किसान हूँ मैं किसान हूँ, धरती का बेटा, म | हिंदी कविता

"White मैं किसान हूँ मैं किसान हूँ, धरती का बेटा, मेरे खून से सींचा हर खेत का टुकड़ा। सूरज की तपिश, चाँदनी की छांव, हर मौसम सहा,बदहाली में गुजारी हर शाम सुबह की पहली किरणों से लेकर रात तक, मेरे पसीने से उपजा जीवन का चमत्कार। पर मेरी झोली में, क्यों सूनापन है, मेरे हक़ के आसमान में अंधेरा घना है। बारिश कभी बनती मेरी दुश्मन, सूखा कभी तोड़ देता मेरा मन। फसलें लहलहाती हैं, पर खुशी नहीं, बाज़ार के भावों में मेरी हस्ती नहीं। कर्ज का बोझ बढ़ता जाता है, मेरे सपनों को धुंधला बनाता है। कभी घर की छत गिर जाती है, कभी बच्चों की शिक्षा छूट जाती है। मैं वो हूँ, जो हर किसी का पेट भरता, पर मेरा ही जीवन क्यों तन्हा सा रहता? मेरे श्रम का मोल कब समझेगी ये दुनिया, मेरी पीड़ा कब महसूस करेगी ये धरती और गगन? मैं किसान हूँ, पर हार नहीं मानूँगा, अपने बच्चों को ये जालिम दौर दिखाऊँगा। फिर उगेगी उम्मीद की हरियाली, जब हर दिल में जागेगी मेरी कहानी। ©samandar Speaks"

 White मैं किसान हूँ
मैं किसान हूँ, धरती का बेटा,
मेरे खून से सींचा हर खेत का टुकड़ा।
सूरज की तपिश, चाँदनी की छांव,
हर मौसम सहा,बदहाली में गुजारी हर शाम 
सुबह की पहली किरणों से लेकर रात तक,
मेरे पसीने से उपजा जीवन का चमत्कार।
पर मेरी झोली में, क्यों सूनापन है,
मेरे हक़ के आसमान में अंधेरा घना है।
बारिश कभी बनती मेरी दुश्मन,
सूखा कभी तोड़ देता मेरा मन।
फसलें लहलहाती हैं, पर खुशी नहीं,
बाज़ार के भावों में मेरी हस्ती नहीं।
कर्ज का बोझ बढ़ता जाता है,
मेरे सपनों को धुंधला बनाता है।
कभी घर की छत गिर जाती है,
कभी बच्चों की शिक्षा छूट जाती है।
मैं वो हूँ, जो हर किसी का पेट भरता,
पर मेरा ही जीवन क्यों तन्हा सा रहता?
मेरे श्रम का मोल कब समझेगी ये दुनिया,
मेरी पीड़ा कब महसूस करेगी ये धरती और गगन?
मैं किसान हूँ, पर हार नहीं मानूँगा,
अपने बच्चों को ये जालिम दौर दिखाऊँगा।
फिर उगेगी उम्मीद की हरियाली,
जब हर दिल में जागेगी मेरी कहानी।

©samandar Speaks

White मैं किसान हूँ मैं किसान हूँ, धरती का बेटा, मेरे खून से सींचा हर खेत का टुकड़ा। सूरज की तपिश, चाँदनी की छांव, हर मौसम सहा,बदहाली में गुजारी हर शाम सुबह की पहली किरणों से लेकर रात तक, मेरे पसीने से उपजा जीवन का चमत्कार। पर मेरी झोली में, क्यों सूनापन है, मेरे हक़ के आसमान में अंधेरा घना है। बारिश कभी बनती मेरी दुश्मन, सूखा कभी तोड़ देता मेरा मन। फसलें लहलहाती हैं, पर खुशी नहीं, बाज़ार के भावों में मेरी हस्ती नहीं। कर्ज का बोझ बढ़ता जाता है, मेरे सपनों को धुंधला बनाता है। कभी घर की छत गिर जाती है, कभी बच्चों की शिक्षा छूट जाती है। मैं वो हूँ, जो हर किसी का पेट भरता, पर मेरा ही जीवन क्यों तन्हा सा रहता? मेरे श्रम का मोल कब समझेगी ये दुनिया, मेरी पीड़ा कब महसूस करेगी ये धरती और गगन? मैं किसान हूँ, पर हार नहीं मानूँगा, अपने बच्चों को ये जालिम दौर दिखाऊँगा। फिर उगेगी उम्मीद की हरियाली, जब हर दिल में जागेगी मेरी कहानी। ©samandar Speaks

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