"ऐ ज़िंदगी, बार-बार ना रुलाया कर,
हर किसी के पास चुप कराने वाला नहीं होता।
तू समझती नहीं, तेरे दिए आँसुओं का बोझ,
हर एक दिल संभाल नहीं पाता।
मैंने सीखा है खामोश रहकर मुस्कुराना,
भीड़ में छिपाकर दर्द को निभाना।
किसी ने पूछा नहीं, 'क्या हुआ?'
और मैंने कभी जताया भी नहीं।
अक्सर अकेली रातों में खुद से बातें होती हैं,
खामोशी में छिपी मेरी हर शिकायत रोती है।
पर दुनिया की भीड़ में मैं सिर्फ़ एक साया बनकर,
हर ग़म को सीने में दबाए जीती हूँ।
ज़िंदगी, तू क्यों हर बार आज़माती है?
हर दर्द को शब्दों में ढालना आसान नहीं होता,
हर आंसू को कोई समझ ले, ये भी ज़रूरी नहीं होता।
बस, अब इतना ही कहना है तुझसे,
कि हर किसी के पास चुप कराने वाला नहीं होता।"
©silent_03
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